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सोमवार, 7 सितंबर 2009

एक दिन

एक दिन सुबह
सूरज नहीं उगा
हम बिस्तरों में कसमसाते हुए
उसके उगने का इन्तजार करने लगे
पर वह नहीं उगा ।
घीरे -घीरे हमारी बैचेनी बढ़ने लगी
अँधेरे आँखों को चुभने लगे
हम भाग कर सड़कों पर आ गये
हजारों की तादाद में लोग भाग रहे थे
चीख रहे थे
सूरज के उगने की प्रार्थना कर रहे थे
उस समय कुछ अन्धे
एक तरफ खडे़ मुस्करा रहे थे
उन्हें मालूम था
गलत राह पर चलते लोगों को सजा देने
सूरज भी गलत राह पर चला गया है
एक दिन आकाश में लगे तारों के पैबन्द
जगह -जगह से उखड़ गये
लाल -पीले मवादी खून की धाराऐं
सड़कों गलियों बाजारों में गिरने लगी
हमने नाक- भौं सिकोड़े
खिड़की दरवाजे बन्द कर लिये
इस समय कुछ इंसानी केकडे़
घरों से बाहर आकर खड़े मुस्करा रहे थे
क्यों कि उन्हें मालूम था
कि बिल्ली के भाग्य से
छीकें टूटते ही रहते हैं
एक दिन हमारे कद अचानक बढ़ने लगे
यहाँ तक कि हम अपने शहर की
सबसे ऊँची इमारत में
झाँक कर देख सकते थे
शायद यह हमारी बरसों पुरानी
झाँकने की आदत का परिणाम था
हम खुश थे झाँकने की सहूलियत पाकर
पर बहुत भीतर कोई एक दु:खी था
जिसे अपने में झाँकने की आदत थी

12 टिप्‍पणियां:

  1. वाह, बहुत सुंदर कविता है. विचारों को गहरे तक प्रभावित करती है. असल कविता की पहचान ही शायद यही है कि उसके बहुआयामी आशय होते हैं और आपकी कविता पढ़ते हुए मुझे कुछ ऐसा ही लगा. बहुत-बहुत शुक्रिया.

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  2. पर बहुत भीतर कोई एक दु:खी था
    जिसे अपने में झाँकने की आदत थी

    वह तो तब भी उतना ही दुखी था जब हम दूसरॊ के घरों मे सीढियाँ लगा कर झाँका करते थे
    ..बड़ी विचारोत्तेजक रही आपकी रचना..खुद के भीतर भी झाँकने की जरूरत महसूस हुई..

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  3. बहुत ही ख़ूबसूरत भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये शानदार कविता काबिले तारीफ है !

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  4. होंसला अफ़जाई के लिए आप सभी का शुक्रिया

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  5. आपका ब्लॉग पढ़ा बहुत अच्छा लगा इस को पढना हर रचना नए रंग रूप और भा दर्शाती है ..शुक्रिया

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  6. "हम खुश थे झाँकने की सहूलियत पाकर,
    पर बहुत भीतर कोई एक दु:खी था,
    जिसे अपने में झाँकने की आदत थी"
    इन पंक्तियों ने सब कह दिया...बहुत बहुत बधाई...

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  7. GAHRA BHAAV CIPA HAI IS RACHNA MEIN .....AAPKI LEKHAN SHAILI ALAG ANDAAZ LIYE HAI ...... DIL MEIN UTAR GAYEE YEH RACHNA .....

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